रविवार, 4 दिसंबर 2011

देखते हैं

बहुत शोर करते रहें हैं अभी तक,
अब खामोश होकर, जहाँ देखते हैं.

इन्सान बनके, बहुत रह लिए हम,
अब शाहीन बनके, आसमां देखते हैं.

दफ़्न करके गैरत, बहुत दिन गुज़ारा,
अब सनक बनके सर का, गुमां देखते हैं.

ग़ज़ब था ज़माना, धुंधली सी यादें,
पलट कर समय को, कहाँ देखते हैं.

गुन्चों से खुशबू, बिखरने लगी है,
कहाँ से चली है हवा देखते हैं.

बेबस कलम और बेरंग रौशनाई,
कागज़ को अब हम, कहाँ देखते हैं.

रविवार, 20 नवंबर 2011

वज़ह ढूँढ लेता है

दिल भी बेक़रारी की वज़ह ढूँढ लेता है.
कई बार हकीकत से नज़र मोड़ लेता है.

जान देता है कभी बेजान लोगों पर,
कभी अजनबी से रिश्ते-नाते जोड़ लेता है.

मेरे दामन पे, तेरी यादों के छींटे हैं,
रूमानी बारिशों में भीगना बेजोड़ होता है.

पकड़कर उंगलियाँ, चलना तुमने ही सिखाया था,
फिर आज हाथों को, तू क्यों मोड़ देता है.

परेशानी पेशानी पे जब इज़हार होती है,
ये दिल धड़कर तेज़, अहम् को तोड़ देता है.  

शनिवार, 29 अक्तूबर 2011

ख़ाब

करवट बदला तो, कुछ ख़ाब कुचल गए.
सर और तकिये के दरमियाँ,
कुछ मासूम,
कुछ भयावह,
अधूरे से ख़ाब थे.

भयावह ख़ाब ऑंखें गुड़ेरे हुए,
मासूम नज़रें झुकाए हुए,
अपनी अपनी शिकायत,
तकिये से कर रहे थे.

तकिये ने कहा,
मैं नहीं, ये सर का खेल है.
वो कभी झुक जाये तो,
कई ख़ाब बच सकते हैं.

मैंने ख़ाबों को देखा तो,
दोनों की ऑंखें नीचीं थीं.
भयावह और मासूम साथ खड़े थे,
पर कुछ कह नहीं पा रहे थे.

मैंने पुछा, क्या हुआ?
दोनों ने एक साथ कहा,
रहम रक्खो, हम भी इन्सान हैं,
तुम्हारी ही तरह, अधूरे.



बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

वक़्त बदलने लगा है.

वक़्त बदलने लगा है.

चाँद की तपिश में,
हिज्र कम, रोमांस ज्यादा नज़र आता है.
कूक में हूक कम,
बुलाने की आवाज़ सुनता हूँ.
वक़्त बदलने लगा है.

पतझर में बसंत की आहट,
काले बादल को चीरती रौशनी,
अरुणिमा में तम का घुलना,
स्पष्ट देख रहा हूँ.
वक़्त बदलने लगा है.

चाशनी गाढ़ी होने लगी है,
तार बनने लगे हैं.
मिठास में छुपी,
कडवाहट ख़त्म हो रही है.
वक़्त बदलने लगा है.

मंगलवार, 27 सितंबर 2011

मुहब्बत का असर

कौन कहता है, मुहब्बत में असर होता है.
कई लोगों का, इसके बगैर, बसर होता है.

वो तनहा ही नहीं, न तन्हाई कि कभी क़द्र की,
जिनके लिए मैं जागता रहता हूँ, सहर होता है.

सारी ज़िल्लत को, नसीबी माना है मैंने,
हर रात क़यामत और दिन, कहर होता है.

तुम्हारी याद ने, बेबस किया, लाचार किया,
हर एक सांस में जो घुलता है, ज़हर होता है.

राघवेश रंजन

सोमवार, 26 सितंबर 2011

अकेलापन


हमारे वास्ते, अपने घर में, कहीं कोई जगह ही नहीं.
हमारा आशियाँ बच जाये, ऐसी कोई वजह ही नहीं.

रिश्तों की रस्साकसी और ज़िन्दगी का कश्मकश,
उलझनें यूँ साफ़ हैं, कहीं कोई गिरह ही नहीं.

हर तरफ धुंध है, अँधेरा है और अकेलापन,
ऐसा लगता है कि, इस रात कि सुबह ही नहीं.

उसने लम्हे जलाकर, रौशन किया है घर अपना,
लगता है, कभी साथ में तय किया, सफ़र ही नहीं!

राघवेश रंजन

चित्र गूगल इमेजेस के सौजन्य से

बुधवार, 21 सितंबर 2011

कागज़ के पुर्ज़े

खून उबलता है, जब भी,
रिश्तों की चाक में पिसता हूँ.

कागज़ के चंद, कोरे पुर्ज़े,
अपनी जेब में रखता हूँ.

जैसे जैसे ग़म बढ़ता है,
वैसे वैसे, लिखता हूँ.


गाढ़ी, बूढी, भारी यादों में,
कलम डुबोकर, रखता हूँ.

अल्फाज़ तुज़ुर्बे से छनते हैं,
जब भी कलम को घिसता हूँ.


राघवेश रंजन


मंगलवार, 20 सितंबर 2011

चाहता हूँ

तेरी आगोश में, सिमट जाना चाहता हूँ.
हर तरफ तू हो, मैं वो ज़माना चाहता हूँ.

तेरे हर रंग नें, तकसीम किया है मुझको,
तुझको हर रंग में, आज़माना चाहता हूँ.

ऐ बेरहम, फिर लौट आओ मेरी गली,
बेपनाह इश्क का, वो खज़ाना चाहता हूँ.

मेरी आँखों के नहीं, तेरी आँखों के सही,
नींद के उन्मांद को, मैं उड़ाना चाहता हूँ.

थरथराते हाथ को, फिर से आकार थाम लो,
गुज़रे हुए उस वक़्त को, और जीना चाहता हूँ.

राघवेश रंजन

सोमवार, 19 सितंबर 2011

खुदगर्ज़

हर एक बात पे, बात खड़ा करते हो.
हर ख़याल पे, ख़यालात खड़ा करते हो.

ज़ख्म भर भर के, मैं उब गया हूँ,
हर हाल पे, हालात खड़ा करते हो.

कभी खुद्दार था, अब हार गया हूँ खुद से,
झुकी निगाहों पे, क़ायनात खड़ा करते हो.


ऐ खुदगर्ज़, तू पनाह के काबिल भी नहीं,
इंसानों पे, हवालात खड़ा करते हो.
बंद होठों से, हर ज़ुल्म सहा है मैंने,
मेरी तक़दीर पे, शह-मात खड़ा करते हो.

ये हाथ जब भी उठेंगे, तेरी दुआ में,
पाक इरादों पे, सवालात खड़ा करते हो.

राघवेश रंजन

गुरुवार, 15 सितंबर 2011

आज कल

नूर-ए-आफ़ताब, पुरे शबाब पर हैं.
ओस की बूँदें फिरभी, गुलाब पर हैं.

दूरियां ज़रूर हैं, हमारे दरमियाँ,
मिलते फिरभी, हिसाब पर हैं.

पैमाने छलक कर, जिंदा रखे हैं,
उँगलियाँ उठती अक्सर, शराब पर हैं.


 
हमने झुककर, तुझे कबूल किया,
तंज कसते मेरे, आदाब पर हैं.

आज में कल छुप गया लेकिन,
हम आज भी, ख़राब पर हैं.

राघवेश रंजन

सोमवार, 12 सितंबर 2011

हर एक सख्स

हर एक सख्स इस जहाँ में, बेज़ुबां नहीं होता,
किसी की बंद मुट्ठियो में, धुआं नहीं होता.

वो जो फिरते हैं, उठाये हुए आसमां सर पे,
हर किसी की फितरत में, ये जहाँ नहीं होता.

इबादत भी हूनर है, हूनर नहीं चीज़ आसां,
ये जान लो के, हर मस्जिद में ख़ुदा नहीं होता.


 
उनको कहना था, वो कहते हैं, कहकर ही रहेंगे,
पर अक्सर चुप रहने वाला, बेवफ़ा नहीं होता.

राघवेश रंजन

शनिवार, 10 सितंबर 2011

हसरत रखता हूँ

कफ़स में कैद परिंदा हूँ,
परवाज़ की हसरत रखता हूँ.

खामोश अंधेरों में रहकर,
आवाज़ की हसरत रखता हूँ.


मैं वक़्त के खेल को झेल रहा,
नए अंदाज़ की हसरत रखता हूँ.
 
 
ख़ुद मेरी गिरेबाँ, गैर हुई,
राज़ की हसरत रखता हूँ.


उनको पाकर ही दम लूँगा,
हमराज़ की हसरत रखता हूँ.

अक्सर हारा हूँ मैं फिरभी,
आगाज़ की हसरत रखता हूँ.
राघवेश रंजन



तन्हाई भरा सफ़र

रंज दिल से, आँखों में उतर आया,
तेरा चेहरा, कुछ और ही नज़र आया.

ता उम्र, आहट का इंतज़ार किया,
आज भी तू, दबे पांव मेरे घर आया.

तुझे भूलने की, कोशिशें तमाम जारी हैं,
तू मुझे भूल गया है, ये ख़बर आया.

तुझे मंजिल तेरी, मुबारक हो,
मेरे नसीब में, तन्हाई भरा सफ़र आया.

राघवेश रंजन

मंगलवार, 6 सितंबर 2011

कम्बख्त वक़्त

कम्बख्त वक़्त भी, थम सा गया है.
रगों का खून, जम सा गया है.

याद आती है तेरी, सियह रातों में,
इक फौलाद सा दिल, सहम सा गया है.


बहता हूँ, बहकना मेरी फितरत तो नहीं,
उफनता हुआ दर्द, तन सा गया है.



राघवेश रंजन

निशाँ बाकी हैं

नज़रों में, वफाओं के निशाँ बाकी हैं.
चेहरे पे, अदाओं के निशाँ बाकी हैं.

कुछ बात तुझमे है, मुझमे नहीं,
पन्नों पे, गुलाबों के निशाँ बाकी हैं.

वक़्त गुज़रा मगर, रुक रुक कर,
लम्हों में, दास्तानों के निशाँ बाकी हैं.

बाद अरसे के, शराब पी है मैंने,
शीशे पे, पैमानों के निशाँ बाकी हैं.

हुई मुद्दत के, दरवाज़ा खोला है मैंने,
दहलीज़ पे, पैरों के निशाँ बाकी हैं.

ये कैसा ख़ाब है, गुदगुदी सी होती है,
लबों पे, तेरे होठों के निशाँ बाकी हैं.

तो क्या हुआ? जो आज मेरे साथ नहीं,
खतों में, दुआओं के निशाँ बाकी हैं.

एक सैलाब को, सीने में भर के रखता हूँ,
किनारों पे, लहरों के निशाँ बाकी हैं.

ख़ाक हो जाऊंगा, ये भरम मत रखना,
मेरे हाथों में, लकीरों के निशाँ बाकी हैं.

राघवेश रंजन



गुस्ताखियाँ

सर्द हवाएं, गुस्ताख हो गयीं हैं,
तेरी यादें, अब राख हो गयीं हैं.


दफन कर दिया है मैंने,
गुज़रा हुआ हर लम्हा.
खताएं, अब माफ़ हो गयीं हैं.


कभी कहते थे तुम,
तेरे जाने का ग़म है.
सारी बातें, साफ़ हो गयीं हैं.


तेरे माथे का टीका,
मेरी पेशानी का अहम् था.
वफायें, अब ख़ाक हो गयीं हैं.


अब दस्तख भी नहीं,
मेरे घर पर देते हो.
आदतें, शर्मनाक हो गयीं हैं.


मैंने सोंचा था,
तुम वापस ज़रूर आओगे.
हसरतें, सियाह रात हो गयीं हैं.


राघवेश रंजन