गुरुवार, 15 सितंबर 2011

आज कल

नूर-ए-आफ़ताब, पुरे शबाब पर हैं.
ओस की बूँदें फिरभी, गुलाब पर हैं.

दूरियां ज़रूर हैं, हमारे दरमियाँ,
मिलते फिरभी, हिसाब पर हैं.

पैमाने छलक कर, जिंदा रखे हैं,
उँगलियाँ उठती अक्सर, शराब पर हैं.


 
हमने झुककर, तुझे कबूल किया,
तंज कसते मेरे, आदाब पर हैं.

आज में कल छुप गया लेकिन,
हम आज भी, ख़राब पर हैं.

राघवेश रंजन

1 टिप्पणी:

  1. अग्निगर्भा अमृता18 सितंबर 2011 को 4:16 pm बजे

    आप आज कल पूरे शबाब पर हैं....।
    हम आज भी ख़राब पर है
    गजब है

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