मंगलवार, 6 सितंबर 2011

निशाँ बाकी हैं

नज़रों में, वफाओं के निशाँ बाकी हैं.
चेहरे पे, अदाओं के निशाँ बाकी हैं.

कुछ बात तुझमे है, मुझमे नहीं,
पन्नों पे, गुलाबों के निशाँ बाकी हैं.

वक़्त गुज़रा मगर, रुक रुक कर,
लम्हों में, दास्तानों के निशाँ बाकी हैं.

बाद अरसे के, शराब पी है मैंने,
शीशे पे, पैमानों के निशाँ बाकी हैं.

हुई मुद्दत के, दरवाज़ा खोला है मैंने,
दहलीज़ पे, पैरों के निशाँ बाकी हैं.

ये कैसा ख़ाब है, गुदगुदी सी होती है,
लबों पे, तेरे होठों के निशाँ बाकी हैं.

तो क्या हुआ? जो आज मेरे साथ नहीं,
खतों में, दुआओं के निशाँ बाकी हैं.

एक सैलाब को, सीने में भर के रखता हूँ,
किनारों पे, लहरों के निशाँ बाकी हैं.

ख़ाक हो जाऊंगा, ये भरम मत रखना,
मेरे हाथों में, लकीरों के निशाँ बाकी हैं.

राघवेश रंजन



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