शनिवार, 29 अक्तूबर 2011

ख़ाब

करवट बदला तो, कुछ ख़ाब कुचल गए.
सर और तकिये के दरमियाँ,
कुछ मासूम,
कुछ भयावह,
अधूरे से ख़ाब थे.

भयावह ख़ाब ऑंखें गुड़ेरे हुए,
मासूम नज़रें झुकाए हुए,
अपनी अपनी शिकायत,
तकिये से कर रहे थे.

तकिये ने कहा,
मैं नहीं, ये सर का खेल है.
वो कभी झुक जाये तो,
कई ख़ाब बच सकते हैं.

मैंने ख़ाबों को देखा तो,
दोनों की ऑंखें नीचीं थीं.
भयावह और मासूम साथ खड़े थे,
पर कुछ कह नहीं पा रहे थे.

मैंने पुछा, क्या हुआ?
दोनों ने एक साथ कहा,
रहम रक्खो, हम भी इन्सान हैं,
तुम्हारी ही तरह, अधूरे.



बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

वक़्त बदलने लगा है.

वक़्त बदलने लगा है.

चाँद की तपिश में,
हिज्र कम, रोमांस ज्यादा नज़र आता है.
कूक में हूक कम,
बुलाने की आवाज़ सुनता हूँ.
वक़्त बदलने लगा है.

पतझर में बसंत की आहट,
काले बादल को चीरती रौशनी,
अरुणिमा में तम का घुलना,
स्पष्ट देख रहा हूँ.
वक़्त बदलने लगा है.

चाशनी गाढ़ी होने लगी है,
तार बनने लगे हैं.
मिठास में छुपी,
कडवाहट ख़त्म हो रही है.
वक़्त बदलने लगा है.