बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

वक़्त बदलने लगा है.

वक़्त बदलने लगा है.

चाँद की तपिश में,
हिज्र कम, रोमांस ज्यादा नज़र आता है.
कूक में हूक कम,
बुलाने की आवाज़ सुनता हूँ.
वक़्त बदलने लगा है.

पतझर में बसंत की आहट,
काले बादल को चीरती रौशनी,
अरुणिमा में तम का घुलना,
स्पष्ट देख रहा हूँ.
वक़्त बदलने लगा है.

चाशनी गाढ़ी होने लगी है,
तार बनने लगे हैं.
मिठास में छुपी,
कडवाहट ख़त्म हो रही है.
वक़्त बदलने लगा है.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें