शुक्रवार, 8 सितंबर 2017

उसने

ख़त के पुर्ज़े उड़ा दिया उसने।
किस बात की सज़ा दिया उसने।

मेरा फ़र्ज़ था उसका हिफाज़त करना,
पर गुनहगार बना दिया उसने।

उसको पलकों पर बिठाकर रखा था,
फिरभी नज़रों से गिरा दिया उसने।

उसी के साथ खुशियां तलाशता था मैं,
छोड़कर हाथ, अपनी औकात बता दिया उसने।






गुरुवार, 10 अगस्त 2017

कुछ कहीं टूट सा गया है!

कुछ कहीं टूट सा गया है।
लगता है कुछ छूट सा गया है।

अब इबादत में मन नही लगता,
शायद वो मुझसे रूठ सा गया है।

कोई क़ुर्बत ही नही अब दरमियाँ,
जो कुछ भी था, मिट सा गया है।

न जाने क्या हो गया उस दिन,
बुलबुला था, फूट सा गया है। 

रविवार, 8 जनवरी 2017

फिर एक बार

एक और शाम
और तन्हाई.
फिर एक बार
तेरी याद आई.

बेनाम सा दर्द
उठा है फिर से.
जस्तुजू -ए-दीद
फिर उमड आई.

आग में क्या क्या
जला है देखो.
जिस्म तो जिस्म
हद-ए-दिल-रूबाई.