शनिवार, 29 अक्टूबर 2011

ख़ाब

करवट बदला तो, कुछ ख़ाब कुचल गए.
सर और तकिये के दरमियाँ,
कुछ मासूम,
कुछ भयावह,
अधूरे से ख़ाब थे.

भयावह ख़ाब ऑंखें गुड़ेरे हुए,
मासूम नज़रें झुकाए हुए,
अपनी अपनी शिकायत,
तकिये से कर रहे थे.

तकिये ने कहा,
मैं नहीं, ये सर का खेल है.
वो कभी झुक जाये तो,
कई ख़ाब बच सकते हैं.

मैंने ख़ाबों को देखा तो,
दोनों की ऑंखें नीचीं थीं.
भयावह और मासूम साथ खड़े थे,
पर कुछ कह नहीं पा रहे थे.

मैंने पुछा, क्या हुआ?
दोनों ने एक साथ कहा,
रहम रक्खो, हम भी इन्सान हैं,
तुम्हारी ही तरह, अधूरे.



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