बुधवार, 21 सितंबर 2011

कागज़ के पुर्ज़े

खून उबलता है, जब भी,
रिश्तों की चाक में पिसता हूँ.

कागज़ के चंद, कोरे पुर्ज़े,
अपनी जेब में रखता हूँ.

जैसे जैसे ग़म बढ़ता है,
वैसे वैसे, लिखता हूँ.


गाढ़ी, बूढी, भारी यादों में,
कलम डुबोकर, रखता हूँ.

अल्फाज़ तुज़ुर्बे से छनते हैं,
जब भी कलम को घिसता हूँ.


राघवेश रंजन


2 टिप्‍पणियां:

  1. Mr. Ranjan, really a heavy one. Are you transiting from rumani to roohani? Plz post some old ones. I remember, hum bhi ji liye tanha. Can you?

    Your good old friend (CS)

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  2. अल्फाज़ तुज़ुर्बे से छनते हैं,
    जब भी कलम को घिसता हूँ.

    तभी शायद इतने असरदार हैं क्‍योंकि तज़ुर्बे से छनते हैं....।

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