मंगलवार, 6 सितंबर 2011

गुस्ताखियाँ

सर्द हवाएं, गुस्ताख हो गयीं हैं,
तेरी यादें, अब राख हो गयीं हैं.


दफन कर दिया है मैंने,
गुज़रा हुआ हर लम्हा.
खताएं, अब माफ़ हो गयीं हैं.


कभी कहते थे तुम,
तेरे जाने का ग़म है.
सारी बातें, साफ़ हो गयीं हैं.


तेरे माथे का टीका,
मेरी पेशानी का अहम् था.
वफायें, अब ख़ाक हो गयीं हैं.


अब दस्तख भी नहीं,
मेरे घर पर देते हो.
आदतें, शर्मनाक हो गयीं हैं.


मैंने सोंचा था,
तुम वापस ज़रूर आओगे.
हसरतें, सियाह रात हो गयीं हैं.


राघवेश रंजन

1 टिप्पणी:

  1. तेरे माथे का टीका मेरी पेशानी का अहं था......

    क्‍या बात कही है.......।

    इतनी साफगोई.....।

    सुन्‍दर है।

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