रविवार, 4 दिसंबर 2011

देखते हैं

बहुत शोर करते रहें हैं अभी तक,
अब खामोश होकर, जहाँ देखते हैं.

इन्सान बनके, बहुत रह लिए हम,
अब शाहीन बनके, आसमां देखते हैं.

दफ़्न करके गैरत, बहुत दिन गुज़ारा,
अब सनक बनके सर का, गुमां देखते हैं.

ग़ज़ब था ज़माना, धुंधली सी यादें,
पलट कर समय को, कहाँ देखते हैं.

गुन्चों से खुशबू, बिखरने लगी है,
कहाँ से चली है हवा देखते हैं.

बेबस कलम और बेरंग रौशनाई,
कागज़ को अब हम, कहाँ देखते हैं.